Tuesday 13 November 2012

जब चाह जगी जीनें कि नयी...



जब चाह जगी जीनें कि नयी...
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मौसम के उमस से मसामोँ ने था ढेर पसीना उगल दिया
दिल में बसाया था जिसको, वो आंसू बनकर निकल गया...  
बादल के बरसने से पहले, दिल टूटा, आवाज हुई
बिजली के चमकते ही उसकी, आखरी दीदार हुई  
मन रोया था इतना की सारा रंज – ओ - गम निकल गया...
पतझड़ के पीले पत्तों की तरह कब टूटा में कुछ याद नहीं
सुखी डाली पे कूके कोयल, अब ऐसी कोई फ़रियाद नहीं
आज फिर बैठा लिखनें को गजल, दर्द भरा तराना निकल गया...
सर्द ठिठुरती रातों में जब निकली आहों की बारात
विरह - वेदना दे रही थी जब सिसकियों कि सौगात
भोर हुई और सूरज आशाओं की किरणों के संग निकल गया...
फिर आया वसंत, ले नया तरंग, हर तरफ प्रकृति में नया जश्न
फूलों - भंवरों का मिलन देख नस – नस में जागा नया उमंग
जब चाह जगी जीनें कि नयी तो सारा अवसाद है निकल गया...

कुमार ठाकुर, प्राचार्य, के० वि० रंगापहाड़ छावनी,दिमापुर, नागालैंड.
१४ नवम्बर, २०१२. 
© कुमार ठाकुर । बिना लिखित अनुमति इन कविताओं का कहीं भी किसी भी प्रारूप में प्रयोग करना वर्जित है।