Sunday 23 September 2012

मैं हिंदी हूँ...


मैं हिंदी हूँ...
कभी वैदिक, कभी संस्कृत; कभी प्राकृत, कभी अपभ्रंश;
लेकिन हर समय में  मैं जबान - ए – हिन्दवी हूँ...
मैं  हिंदी हूँ... मैं  हिंदी हूँ... मैं  हिंदी हूँ...
में भारत – ईरानी और आर्य – शाखा समूह की भाषा हूँ;
मैं गौरवमयी भारतीय संघ की मृदुल मनोहर राजभाषा हूँ.
मैं ७५० ई० पू० से आपके साथ हूँ,
लौकिक संस्कृत का क्रमिक विकास हूँ,
बौद्ध – जैन के प्राकृत ग्रंथों का आवास हूँ,
पाली और ब्राह्मी लिपियों का शिलालेख हूँ.
कभी मैं गुप्त लिपि तो कभी सिद्ध मात्रिका लिपि मानी गयी;
समय बीतता गया और मैं देवनागरी लिपि के नाम से जानी गयी.
मैं प्रथम कवि सरहपाद की दोहाकोश हूँ,
मैं जैन कवि देवसेन की श्रावकाचार हूँ,
 मैं खुसरो की पहेलियाँ और मुकरियाँ,
और कबीर की निर्गुण भक्ति धारा हूँ.
मैं सूफी की प्रेम-गाथा और सगुन भक्ति की काव्य धारा हूँ,
गुरु अर्जुन देव जी की आदि ग्रन्थ और तुलसी की रामचरितमानस हूँ,
मैं रीति-काव्य की परंपरा और जनमानस की उर्दू हूँ...
मैं हिंदी हूँ... मैं  हिंदी हूँ... मैं  हिंदी हूँ...
मैं भारतेंदु, बिहारी, प्रेमचन्द्र, गुप्त, प्रसाद, निराला हूँ,
मैं पन्त, द्विवेदी, महादेवी, अज्ञेय, नागार्जुन, रेणु हूँ,
मैं निर्मल, मोहन, भारती, सहाय, और शुक्ल, यशपाल, द्विवेदी हूँ.
मैं अविरल, सहिष्णु भाषा – साहित्य की परिभाषा हूँ;
द्रविड़, अरबी, फारसी, तुर्की, पुर्तगाली और अंग्रेजी
शब्दों के साथ मैं भविष्य की आशा हूँ;
वैश्विक स्तर पर आभा बिखेरती, अन्य भाषाओँ के शब्द सहेजती;
सरल, सुगम्य और वैज्ञानिक अब मैं हर एक देश की अभिलाषा हूँ;
मैं नयी “विश्व की भाषा” हूँ... मैं नयी “विश्व की भाषा” हूँ...

कुमार ठाकुर
 प्राचार्य
के० वि० रंगापहाड़, नागालैंड
दिनांक: २३ सितम्बर, २०१२. 
© कुमार ठाकुर । बिना लिखित अनुमति इन कविताओं का कहीं भी किसी भी प्रारूप में प्रयोग करना वर्जित है।