Friday 14 December 2012

कुलवंत तुम कुलीन बन



कुलवंत तुम कुलीन बन
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कुलवंत तुम कुलीन बन
 शांत और शालीन बन
राग – द्वेष छोड़ कर,  
काम – क्रोध त्याग दे
लोभ – लालच को छोड़
हिंसक प्रवृति परित्याग दे
तुम मनुष्य हो, सभ्य हो,
सभ्य समाज के प्रतीक
सामाजिक बनके जीना सीखो
बन के रहो ना अब अतीक
नफरत के जज्बे से होगा
केवल तेरा ही नुकसान
प्यार के पौधों को सींचो
तुम इक पल बनकर इंसान
जीवन जश्न बन जाएगा
और तुम बन जाओगे महान
सर्वत्र पूज्यनीय बनकर तुम
होगे प्रसिद्ध दुनिया जहान
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कुमार ठाकुर, प्राचार्य, के० वि० रंगापहाड़ छावनी, दिमापुर, नागालैंड.
२७ नवम्बर, २०१२.
© कुमार ठाकुर । बिना लिखित अनुमति इन कविताओं का कहीं भी किसी भी प्रारूप में प्रयोग करना वर्जित है।

तुम पढ़े - लिखे मूर्ख हो...



                               तुम पढ़े - लिखे मूर्ख हो...
मेरे कई मित्रों में एक है कुलवंत
वह सबको तुच्छ समझता है
और अपने ज्ञान पर अकड़ता है
वह सामाजिक बना रह सकता नहीं
मैं उसे असामाजिक कह सकता नहीं
नकारात्मक सोच से पूरी तरह भरा
जिद्द और अहंकार में अकडा खड़ा...
सभी उससे दूरी ही बनाकर रहते हैं
उसके बारे में कुछ न कुछ कहते हैं
एक दिन वह मुझसे मिला और
बोला- लोग मुझसे क्यों नहीं मिलते
हमारे बीच प्रेम पुष्प क्यों नहीं खिलते
मैंने कहा- अपना आपा खो के देखो
कुटिलतम मन का मेल धो के देखो
इतना सुनते ही वह बौखलाया
मेरे ही ऊपर जोर से चिल्लाया
तुमने दूसरों के पक्ष में बोला
मेरे ज्ञान को कम कर तोला
तुम पढ़े – लिखे मूर्ख हो, इतना
मैंने धीरे से, ज्योंही समझाने को बोला
तमतमाते हुए उसने अपना मुंह खोला...
मैंने इतनी बड़ी – बड़ी डिग्रियां ली,
दिन – रात इतनी सारी मेहनत की
जे आर एफ किया, नेट किया,
एम् फिल और पी एच डी की
मैनें कड़ी मिहनत से है इसको कमाया
और तुमने मेरी डिग्री का मजाक उडाया
अब मैं तुम्हें भी हरगिज नहीं छोडूंगा
मेरे डिग्री अवमानना पे कचहरी में तोलूँगा
मैंने कहा- देखो, इसी बात को सोचो
जब तुममें थोड़ी भी गंभीरता नहीं है
जरा सी भी सहनशीलता नहीं है
बात – बात पर पिनक जाते हो
छोटी बातों पे सनक जाते हो
अपना आपा ही खो जाते हो
अपनी शालीनता भूल जाते हो
हत्थे से उखड जाते हो
उद्विग्न – उत्तेजित हो जाते हो
क्रोधी और कसाई बनकर
हिंसक विचार से भर जाते हो
मर्यादा की सीमा लांघ कर
तुच्छ मानुष तुम बन जाते हो
अपनी घृणा में जल – भूनकर
प्रतिघाती तुम बन जाते हो
निर्मम और निर्लज्ज बनकर
आदरणीय को भी ताड़ जाते हो
ज्ञान का परिधान उतारकर
कलुषित – कर्कश हो जाते हो
बदरंग, बेढंग और बर्बरता के साथ
बेलगाम और बेहूदा हो जाते हो
ज्ञान की सब बाते भूलकर
उज्जड - उदंड तुम हो जाते हो
तो कौन तुम्हारा अपना होगा
कोई मित्र हो, यह सपना भी सपना होगा
अभी ही देखो,  तुम क्रोध में कितने सुर्ख हो
इसलिए कहता हूँ, “तुम पढ़े – लिखे मूर्ख हो...”
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कुमार ठाकुर, प्राचार्य, के० वि० रंगापहाड छावनी. 
२७ सितम्बर, २०१२
© कुमार ठाकुर । बिना लिखित अनुमति इन कविताओं का कहीं भी किसी भी प्रारूप में प्रयोग करना वर्जित है।

Tuesday 13 November 2012

जब चाह जगी जीनें कि नयी...



जब चाह जगी जीनें कि नयी...
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मौसम के उमस से मसामोँ ने था ढेर पसीना उगल दिया
दिल में बसाया था जिसको, वो आंसू बनकर निकल गया...  
बादल के बरसने से पहले, दिल टूटा, आवाज हुई
बिजली के चमकते ही उसकी, आखरी दीदार हुई  
मन रोया था इतना की सारा रंज – ओ - गम निकल गया...
पतझड़ के पीले पत्तों की तरह कब टूटा में कुछ याद नहीं
सुखी डाली पे कूके कोयल, अब ऐसी कोई फ़रियाद नहीं
आज फिर बैठा लिखनें को गजल, दर्द भरा तराना निकल गया...
सर्द ठिठुरती रातों में जब निकली आहों की बारात
विरह - वेदना दे रही थी जब सिसकियों कि सौगात
भोर हुई और सूरज आशाओं की किरणों के संग निकल गया...
फिर आया वसंत, ले नया तरंग, हर तरफ प्रकृति में नया जश्न
फूलों - भंवरों का मिलन देख नस – नस में जागा नया उमंग
जब चाह जगी जीनें कि नयी तो सारा अवसाद है निकल गया...

कुमार ठाकुर, प्राचार्य, के० वि० रंगापहाड़ छावनी,दिमापुर, नागालैंड.
१४ नवम्बर, २०१२. 
© कुमार ठाकुर । बिना लिखित अनुमति इन कविताओं का कहीं भी किसी भी प्रारूप में प्रयोग करना वर्जित है।   

Wednesday 24 October 2012

मुझे मेरा गांव ना मिला...



मुझे मेरा गांव ना मिला...

जिंदगी की भाग दौड़ में कब कहाँ से कहाँ चला गया
गाँव से शहर और एक शहर से दुसरे की ओर चलता चला गया
समय अपनी गति से चलता रहा और 
मैं एक जगह से दुसरे जगह भटकता रहा
रोजी रोटी की तलाश और अपने बच्चों को सुख देने के कारक तलाशता रहा
मन के अंदर एक कमी सी खलती रहती थी 
हमेशा ही गांव जाने की आस लगी रहती थी
ट्रेन का टिकट लिया और चल पड़ा गांव की ओर
छुक - छुक करती इंजिन मचा रही थी शोर
खिडकी से झांकता मैं ढूंढता रहा उस परिवेश को  
जो मुझे मिला करता था जाते हुए अपने देस को
सडकें अब कच्ची ना थी; उसपर बैलगाड़ी ना थे
रिक्शा – टमटम और ठसाठस सवारी ना थे
गाय- भैंस, भेड़ – बकरी और चरवाहे ना थे
कंधे पर हल उठाये गीत गाते हरवाहे ना थे
झाड-फूस की झोपडी और खपरैल घर भी ना थे
चौपाल लगाते लोग; बट-पीपल-पाकड़ भी ना थे
गांव का दृश्य पूरी तरह बदला - बदला था
पक्की सडकें, सरपट दौडती गाडियां, ऊँची- ऊँची इमारतें
 लाउडस्पीकर का शोर और बैनर–पोस्टर पर लिखी इबारतें
मोबाइल पर अंग्रेजी में बातें करते शहरी परिधान में अनजाने लोग
किसी को पता ना चला की फलां का बेटा फलां बाबू आया है
 हमने समझ लिया यहाँ भी अब शहरीकरण की माया है
अपनी बाट जोहती माँ से मिला आशीष लिया और पूछा “माँ, सबकुछ कैसा है”
माँ बोली, बेटा अब ना यह गांव अपना वह गांव रहा ना ही सबकुछ अब वैसा है
जब पीड़ा होती थी हर पडोसी की पीड़ में
जब सब अपने ही होते थे हर किसी भीड़ में
जब उसकी बेटी अपनी ही बेटी होती थी
जब उसका कष्ट अपना कष्ट ही होता था
जब जुम्मन चाचा और पीटर भी अंकल होता था
जब सब मिल ताजिया बनाते और उठाते थे
ईद - बकरीद, होली – दिवाली हम साथ-साथ मनाते थे  
गुरु परब और नगर कीर्तन में भी एक साथ सब गाते थे
अब भौतिकता की चमक - दमक में हमने भाईचारा खोया है
छल - कपट और कुटिल स्वार्थवश यहाँ हरदिन कोई-न–कोई रोया है  
मेरे बचपन के कोई दोस्त भी ना मिले
ना गिल्ली डंडा ना कबड्डी की टीम का कोई साथी मिला  
  ना ही नाटक के रंगकर्मी दोस्त मिले  
ना ही उमाशंकर चौधरी के ड्योढ़ी पर कोई हाथी मिला
ना सुबह सवेरे किसी के पराती का आवाज सुना
ना सोहर-समदाउन गाती महिला टोली का सुर-साज सुना
मैं सोचने लगा- अब गांव और शहर में कोई फर्क नहीं रहा
जिस गांव की तलाश में आया था अब वह गांव, गांव ना रहा
माँ मिली, अपना ठाँव मिला, लेकिन मेरा गांव ना मिला  
 मुझे मेरा गांव ना मिला... मुझे मेरा गांव ना मिला...

कुमार ठाकुर, प्राचार्य, के० वि० रंगापहाड़, नागालैंड.
२४. १०. २०१२  
© कुमार ठाकुर । बिना लिखित अनुमति इन कविताओं का कहीं भी किसी भी प्रारूप में प्रयोग करना वर्जित है।