मैं और मेरी तन्हाई...
मैं कभी भी तन्हा न रहा, क्योंकि
जब कोई ना होता, हर पल
तब भी मेरी तन्हाई मेरे साथ होती...
सुख के कोमल पलों में जब सब साथ होते,
पता चलता, वे केवल अपने में आप होते
दुःख के कठोर क्षणों में जब कोई पास न होता
तब भी मेरी तन्हाई मेरे साथ होती...
सुबह और शाम को; दिन और रात को
घर और दफ्तर में; रास्ते के सफर में
हर एक पल में जब सब सुनसान होता
तब भी मेरी तन्हाई मेरे साथ होती...
बेवजह की पार्टियों में जब ठहाकों का दौर चलता
डांस फ्लोर पर कदम मिलाकर थिरकने वाले
कुछ पल बाद फिर अजनबी बन जाता
तब भी मेरी तन्हाई मेरे साथ होती...
बज्मों में नज्म और गजल
गाता
गुलकारों से वाहवाही व श्रोताओं
की तालियां पाता
और फिर एक बार अपने को
तन्हा पाता, लेकिन
तब भी मेरी तन्हाई मेरे साथ होती...
लो आज भी कर ली मैंने अपने
घर में रोशन चिराग
चाहे यहाँ अब कोई आता –
जाता नहीं, लेकिन
चैन और सुकून है, हम दोनों
ही यहाँ अब रहते हैं
मैं और मेरी तन्हाई...
कुमार ठाकुर, प्राचार्य, के० वि० रंगापहाड़, नागालैंड.
३ जनवरी, २०१३.
© कुमार ठाकुर । बिना लिखित अनुमति इन कविताओं का कहीं भी किसी भी प्रारूप में प्रयोग करना वर्जित है।
© कुमार ठाकुर । बिना लिखित अनुमति इन कविताओं का कहीं भी किसी भी प्रारूप में प्रयोग करना वर्जित है।
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