इंसानियत का फर्ज
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गमख्वारी का आपको अंदाजा भी क्या होगा;
ग़ुरबत में आपने दिन दो भी ना गुजारे |
मौजे दरिया, तूफ़ान, भंवर आप क्या जानो;
पैदा हुए आप उस कश्ती में जो खड़ी थी किनारे |
महलों में रहने वाले तेरे झरोखों पर भी पर्दा है;
यहाँ उनका घर ही नहीं, तन भी बेपर्दा है |
एक पल निकल के आज, आ जाओ उनके पास;
उनकी जिंदगी में देखो कितने गुबार ओ गर्दा है |
कोशिश हमारी देखो, जरूर रंग लाएगी;
इंसान हो, इंसानियत का फर्ज अदा कर |
अल्लाह के बंदे कर अब सबकी खुशी मुक़र्रर;
इस जिंदगी को पाने का कुछ कर्ज अदा कर |
कुमार ठाकुर, प्राचार्य, के० वि० रंगापहाड़, नागालैंड। १२ जनवरी, २०१३.
© कुमार ठाकुर । बिना लिखित अनुमति इन कविताओं का कहीं भी किसी भी प्रारूप में प्रयोग करना वर्जित है।
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