Friday, 14 December 2012

तुम पढ़े - लिखे मूर्ख हो...



                               तुम पढ़े - लिखे मूर्ख हो...
मेरे कई मित्रों में एक है कुलवंत
वह सबको तुच्छ समझता है
और अपने ज्ञान पर अकड़ता है
वह सामाजिक बना रह सकता नहीं
मैं उसे असामाजिक कह सकता नहीं
नकारात्मक सोच से पूरी तरह भरा
जिद्द और अहंकार में अकडा खड़ा...
सभी उससे दूरी ही बनाकर रहते हैं
उसके बारे में कुछ न कुछ कहते हैं
एक दिन वह मुझसे मिला और
बोला- लोग मुझसे क्यों नहीं मिलते
हमारे बीच प्रेम पुष्प क्यों नहीं खिलते
मैंने कहा- अपना आपा खो के देखो
कुटिलतम मन का मेल धो के देखो
इतना सुनते ही वह बौखलाया
मेरे ही ऊपर जोर से चिल्लाया
तुमने दूसरों के पक्ष में बोला
मेरे ज्ञान को कम कर तोला
तुम पढ़े – लिखे मूर्ख हो, इतना
मैंने धीरे से, ज्योंही समझाने को बोला
तमतमाते हुए उसने अपना मुंह खोला...
मैंने इतनी बड़ी – बड़ी डिग्रियां ली,
दिन – रात इतनी सारी मेहनत की
जे आर एफ किया, नेट किया,
एम् फिल और पी एच डी की
मैनें कड़ी मिहनत से है इसको कमाया
और तुमने मेरी डिग्री का मजाक उडाया
अब मैं तुम्हें भी हरगिज नहीं छोडूंगा
मेरे डिग्री अवमानना पे कचहरी में तोलूँगा
मैंने कहा- देखो, इसी बात को सोचो
जब तुममें थोड़ी भी गंभीरता नहीं है
जरा सी भी सहनशीलता नहीं है
बात – बात पर पिनक जाते हो
छोटी बातों पे सनक जाते हो
अपना आपा ही खो जाते हो
अपनी शालीनता भूल जाते हो
हत्थे से उखड जाते हो
उद्विग्न – उत्तेजित हो जाते हो
क्रोधी और कसाई बनकर
हिंसक विचार से भर जाते हो
मर्यादा की सीमा लांघ कर
तुच्छ मानुष तुम बन जाते हो
अपनी घृणा में जल – भूनकर
प्रतिघाती तुम बन जाते हो
निर्मम और निर्लज्ज बनकर
आदरणीय को भी ताड़ जाते हो
ज्ञान का परिधान उतारकर
कलुषित – कर्कश हो जाते हो
बदरंग, बेढंग और बर्बरता के साथ
बेलगाम और बेहूदा हो जाते हो
ज्ञान की सब बाते भूलकर
उज्जड - उदंड तुम हो जाते हो
तो कौन तुम्हारा अपना होगा
कोई मित्र हो, यह सपना भी सपना होगा
अभी ही देखो,  तुम क्रोध में कितने सुर्ख हो
इसलिए कहता हूँ, “तुम पढ़े – लिखे मूर्ख हो...”
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कुमार ठाकुर, प्राचार्य, के० वि० रंगापहाड छावनी. 
२७ सितम्बर, २०१२
© कुमार ठाकुर । बिना लिखित अनुमति इन कविताओं का कहीं भी किसी भी प्रारूप में प्रयोग करना वर्जित है।

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