Wednesday, 20 June 2012

तुम मिले...


तुम मिले...

जहाँ हमने ढूँढा वहाँ तुम मिले;
जहाँ हम गए वहाँ तुम मिले.

जमीं पे तुम्हारा ही जलवा नजर आया;
अर्श पे तुम्हारा ही अक्स लहराया.

मेरी सोच में तुम्हारा ही आशियाना;
जहाँ भी जाऊं, सुनु तेरा ही अफसाना.

बागों में तुम, उसके कलियों में तुम;
फूलों में तुम, उसके खुशबू में तुम. 

अदाओं में तुम, वफाओं में तुम;
नज्मों में तुम, हर बज्मों में तुम.

शफाकत में तुम, नजाकत में तुम;
जर्रे – जर्रे कि सदाकत में तुम.

आशिकी के हर जमानों में तुम;
आशिक के हर अरमानों में तुम.

मेरे तसब्बुर में तुम, मेरे हर तदवीर में तुम;
दिल- ओ – दिमाग में उपजे सोच कि हर लकीर में तुम.

जहाँ भी जाऊं अब, मुझको मिले तुम ही तुम;
                   अब तो मेरी हस्ती भी है तुम ही तुम... 
               
कुमार ठाकुर
१८ जून २०१२.
© कुमार ठाकुर । बिना लिखित अनुमति इन कविताओं का कहीं भी किसी भी प्रारूप में प्रयोग करना वर्जित है।

Friday, 15 June 2012

जगमगाती है मेरी रातें...

जगमगाती है मेरी रातें...

बुत, बुत को  कहता काफिर, कैसी है ये बातें;
ऐसी ही सोच में गुजरती थी मेरी हर रातें

रब ने सिखाई  सब इन्सां को ईमान की बातें;
इन्सां ने दिखाई हैवानियत दिन हो या रातें

एक दिन पुकारा उसको, समझा मुझे बातें;
वो बैठा मेरे पास, रोशन कर दी मेरी रातें

वो करते  हैं हमसे हमारे दिल की बातें;
बातों - ही- बातों में कट जाती  है रातें

ना  बदलें करवट, ना पलकें ही झपके;
ना जानें कब - कैसे कट जाती है रातें

ना कोई शिकायत, ना गम  की बातें;
एक रूहानी सफ़र अब लगती है रातें

अब रोज होती है उनसे मुलाकातें;
उनके धुन में गुजर जाती है रातें

तसब्बुर में केवल उनकी ही यादें;
ख्यालों के मेलों से  सजती है रातें

करना मुझसे अब कोई जन्नत की बातें;
नूरे इलाही से अब जगमगाती है मेरी  रातें

कुमार ठाकुर
१५ जून २०१२

© कुमार ठाकुर । बिना लिखित अनुमति इन कविताओं का कहीं भी किसी भी प्रारूप में प्रयोग करना वर्जित है।

Saturday, 2 June 2012

काश ! ऐसा होता...

काश ! ऐसा होता...
आज हर कोई ये सोचता है,
अगर मैं ये होता, तो वो करता l
मेरे हाथ में पॉवर होता, तो
अपराधी और अपराध नहीं होता;
भ्रष्ट लोग और भ्रष्टाचार नहीं होता;
महंगाई और बेरोजगारी नहीं होती;
गरीबी और बेगारी नहीं होती;
बीमार और बीमारी नहीं होती;
स्वशासन और सुशासन होता;
ईमानदार  और स्वच्छ प्रशासन होता;
जनता और नेताओं में अनुशासन होता;
देश - कोस में खुशहाली होती;
चारों तरफ सुख - समृधि होता;
न काला धन, ना चोरबाजारी होती;
प्रगति में सबकी हिस्सेदारी होती l 
सोचता हूँ काश ! ऐसा होता...
काश ! ऐसा होता...काश ! ऐसा होता...

कुमार ठाकुर 
२ जून २०१२ 
© कुमार ठाकुर । बिना लिखित अनुमति इन कविताओं का कहीं भी किसी भी प्रारूप में प्रयोग करना वर्जित है