प्रवृति "आ बैल मुझे मार" की
कुछ लोगों की प्रवृति होती है, "आ बैल मुझे मार" की;
उन्हें कहाँ है लाज - शर्म हर पल - पल के हार – श्रृंगार की.
ब्यर्थ ही ताना - बाना बुनते रहते, करते हैं सब बेकार की;
ना खुद को है सुख – चैन, ना है चिंता अपने घर - बार की.
दूसरों को देख सके न सुखी, उलझन डाले नाना प्रकार की;
निंदक - निष्कृष्ट- निंदनीय बनकर वे बातें करे तकरार की.
फितरत से पाखंडी होते, चैम्पियन सांठ - गांठ-तोड़ - फाड़ की;
उल - जुलूल में व्यस्त हैं रहते, ना कुछ सरोकार रोजगार की.
अर्थहीन संवाद के मालिक कटु आलोचक सरकार की;
उनको कुछ ना फर्क है पड़ता किसी डांट - फटकार की.
इनको जरा भी समझ नहीं आता कोई भाषा प्यार की;
क्योंकि इनकी तो प्रवृति होती है "आ बैल मुझे मार" की
कुमार ठाकुर
९ जनवरी, २०१२.
०५:१० बजे अपराह्न.
© कुमार ठाकुर । बिना लिखित अनुमति इन कविताओं का कहीं भी किसी भी प्रारूप में प्रयोग करना वर्जित है।
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