Wednesday, 24 October 2012

मुझे मेरा गांव ना मिला...



मुझे मेरा गांव ना मिला...

जिंदगी की भाग दौड़ में कब कहाँ से कहाँ चला गया
गाँव से शहर और एक शहर से दुसरे की ओर चलता चला गया
समय अपनी गति से चलता रहा और 
मैं एक जगह से दुसरे जगह भटकता रहा
रोजी रोटी की तलाश और अपने बच्चों को सुख देने के कारक तलाशता रहा
मन के अंदर एक कमी सी खलती रहती थी 
हमेशा ही गांव जाने की आस लगी रहती थी
ट्रेन का टिकट लिया और चल पड़ा गांव की ओर
छुक - छुक करती इंजिन मचा रही थी शोर
खिडकी से झांकता मैं ढूंढता रहा उस परिवेश को  
जो मुझे मिला करता था जाते हुए अपने देस को
सडकें अब कच्ची ना थी; उसपर बैलगाड़ी ना थे
रिक्शा – टमटम और ठसाठस सवारी ना थे
गाय- भैंस, भेड़ – बकरी और चरवाहे ना थे
कंधे पर हल उठाये गीत गाते हरवाहे ना थे
झाड-फूस की झोपडी और खपरैल घर भी ना थे
चौपाल लगाते लोग; बट-पीपल-पाकड़ भी ना थे
गांव का दृश्य पूरी तरह बदला - बदला था
पक्की सडकें, सरपट दौडती गाडियां, ऊँची- ऊँची इमारतें
 लाउडस्पीकर का शोर और बैनर–पोस्टर पर लिखी इबारतें
मोबाइल पर अंग्रेजी में बातें करते शहरी परिधान में अनजाने लोग
किसी को पता ना चला की फलां का बेटा फलां बाबू आया है
 हमने समझ लिया यहाँ भी अब शहरीकरण की माया है
अपनी बाट जोहती माँ से मिला आशीष लिया और पूछा “माँ, सबकुछ कैसा है”
माँ बोली, बेटा अब ना यह गांव अपना वह गांव रहा ना ही सबकुछ अब वैसा है
जब पीड़ा होती थी हर पडोसी की पीड़ में
जब सब अपने ही होते थे हर किसी भीड़ में
जब उसकी बेटी अपनी ही बेटी होती थी
जब उसका कष्ट अपना कष्ट ही होता था
जब जुम्मन चाचा और पीटर भी अंकल होता था
जब सब मिल ताजिया बनाते और उठाते थे
ईद - बकरीद, होली – दिवाली हम साथ-साथ मनाते थे  
गुरु परब और नगर कीर्तन में भी एक साथ सब गाते थे
अब भौतिकता की चमक - दमक में हमने भाईचारा खोया है
छल - कपट और कुटिल स्वार्थवश यहाँ हरदिन कोई-न–कोई रोया है  
मेरे बचपन के कोई दोस्त भी ना मिले
ना गिल्ली डंडा ना कबड्डी की टीम का कोई साथी मिला  
  ना ही नाटक के रंगकर्मी दोस्त मिले  
ना ही उमाशंकर चौधरी के ड्योढ़ी पर कोई हाथी मिला
ना सुबह सवेरे किसी के पराती का आवाज सुना
ना सोहर-समदाउन गाती महिला टोली का सुर-साज सुना
मैं सोचने लगा- अब गांव और शहर में कोई फर्क नहीं रहा
जिस गांव की तलाश में आया था अब वह गांव, गांव ना रहा
माँ मिली, अपना ठाँव मिला, लेकिन मेरा गांव ना मिला  
 मुझे मेरा गांव ना मिला... मुझे मेरा गांव ना मिला...

कुमार ठाकुर, प्राचार्य, के० वि० रंगापहाड़, नागालैंड.
२४. १०. २०१२  
© कुमार ठाकुर । बिना लिखित अनुमति इन कविताओं का कहीं भी किसी भी प्रारूप में प्रयोग करना वर्जित है।

Sunday, 23 September 2012

मैं हिंदी हूँ...


मैं हिंदी हूँ...
कभी वैदिक, कभी संस्कृत; कभी प्राकृत, कभी अपभ्रंश;
लेकिन हर समय में  मैं जबान - ए – हिन्दवी हूँ...
मैं  हिंदी हूँ... मैं  हिंदी हूँ... मैं  हिंदी हूँ...
में भारत – ईरानी और आर्य – शाखा समूह की भाषा हूँ;
मैं गौरवमयी भारतीय संघ की मृदुल मनोहर राजभाषा हूँ.
मैं ७५० ई० पू० से आपके साथ हूँ,
लौकिक संस्कृत का क्रमिक विकास हूँ,
बौद्ध – जैन के प्राकृत ग्रंथों का आवास हूँ,
पाली और ब्राह्मी लिपियों का शिलालेख हूँ.
कभी मैं गुप्त लिपि तो कभी सिद्ध मात्रिका लिपि मानी गयी;
समय बीतता गया और मैं देवनागरी लिपि के नाम से जानी गयी.
मैं प्रथम कवि सरहपाद की दोहाकोश हूँ,
मैं जैन कवि देवसेन की श्रावकाचार हूँ,
 मैं खुसरो की पहेलियाँ और मुकरियाँ,
और कबीर की निर्गुण भक्ति धारा हूँ.
मैं सूफी की प्रेम-गाथा और सगुन भक्ति की काव्य धारा हूँ,
गुरु अर्जुन देव जी की आदि ग्रन्थ और तुलसी की रामचरितमानस हूँ,
मैं रीति-काव्य की परंपरा और जनमानस की उर्दू हूँ...
मैं हिंदी हूँ... मैं  हिंदी हूँ... मैं  हिंदी हूँ...
मैं भारतेंदु, बिहारी, प्रेमचन्द्र, गुप्त, प्रसाद, निराला हूँ,
मैं पन्त, द्विवेदी, महादेवी, अज्ञेय, नागार्जुन, रेणु हूँ,
मैं निर्मल, मोहन, भारती, सहाय, और शुक्ल, यशपाल, द्विवेदी हूँ.
मैं अविरल, सहिष्णु भाषा – साहित्य की परिभाषा हूँ;
द्रविड़, अरबी, फारसी, तुर्की, पुर्तगाली और अंग्रेजी
शब्दों के साथ मैं भविष्य की आशा हूँ;
वैश्विक स्तर पर आभा बिखेरती, अन्य भाषाओँ के शब्द सहेजती;
सरल, सुगम्य और वैज्ञानिक अब मैं हर एक देश की अभिलाषा हूँ;
मैं नयी “विश्व की भाषा” हूँ... मैं नयी “विश्व की भाषा” हूँ...

कुमार ठाकुर
 प्राचार्य
के० वि० रंगापहाड़, नागालैंड
दिनांक: २३ सितम्बर, २०१२. 
© कुमार ठाकुर । बिना लिखित अनुमति इन कविताओं का कहीं भी किसी भी प्रारूप में प्रयोग करना वर्जित है।

Wednesday, 20 June 2012

तुम मिले...


तुम मिले...

जहाँ हमने ढूँढा वहाँ तुम मिले;
जहाँ हम गए वहाँ तुम मिले.

जमीं पे तुम्हारा ही जलवा नजर आया;
अर्श पे तुम्हारा ही अक्स लहराया.

मेरी सोच में तुम्हारा ही आशियाना;
जहाँ भी जाऊं, सुनु तेरा ही अफसाना.

बागों में तुम, उसके कलियों में तुम;
फूलों में तुम, उसके खुशबू में तुम. 

अदाओं में तुम, वफाओं में तुम;
नज्मों में तुम, हर बज्मों में तुम.

शफाकत में तुम, नजाकत में तुम;
जर्रे – जर्रे कि सदाकत में तुम.

आशिकी के हर जमानों में तुम;
आशिक के हर अरमानों में तुम.

मेरे तसब्बुर में तुम, मेरे हर तदवीर में तुम;
दिल- ओ – दिमाग में उपजे सोच कि हर लकीर में तुम.

जहाँ भी जाऊं अब, मुझको मिले तुम ही तुम;
                   अब तो मेरी हस्ती भी है तुम ही तुम... 
               
कुमार ठाकुर
१८ जून २०१२.
© कुमार ठाकुर । बिना लिखित अनुमति इन कविताओं का कहीं भी किसी भी प्रारूप में प्रयोग करना वर्जित है।

Friday, 15 June 2012

जगमगाती है मेरी रातें...

जगमगाती है मेरी रातें...

बुत, बुत को  कहता काफिर, कैसी है ये बातें;
ऐसी ही सोच में गुजरती थी मेरी हर रातें

रब ने सिखाई  सब इन्सां को ईमान की बातें;
इन्सां ने दिखाई हैवानियत दिन हो या रातें

एक दिन पुकारा उसको, समझा मुझे बातें;
वो बैठा मेरे पास, रोशन कर दी मेरी रातें

वो करते  हैं हमसे हमारे दिल की बातें;
बातों - ही- बातों में कट जाती  है रातें

ना  बदलें करवट, ना पलकें ही झपके;
ना जानें कब - कैसे कट जाती है रातें

ना कोई शिकायत, ना गम  की बातें;
एक रूहानी सफ़र अब लगती है रातें

अब रोज होती है उनसे मुलाकातें;
उनके धुन में गुजर जाती है रातें

तसब्बुर में केवल उनकी ही यादें;
ख्यालों के मेलों से  सजती है रातें

करना मुझसे अब कोई जन्नत की बातें;
नूरे इलाही से अब जगमगाती है मेरी  रातें

कुमार ठाकुर
१५ जून २०१२

© कुमार ठाकुर । बिना लिखित अनुमति इन कविताओं का कहीं भी किसी भी प्रारूप में प्रयोग करना वर्जित है।

Saturday, 2 June 2012

काश ! ऐसा होता...

काश ! ऐसा होता...
आज हर कोई ये सोचता है,
अगर मैं ये होता, तो वो करता l
मेरे हाथ में पॉवर होता, तो
अपराधी और अपराध नहीं होता;
भ्रष्ट लोग और भ्रष्टाचार नहीं होता;
महंगाई और बेरोजगारी नहीं होती;
गरीबी और बेगारी नहीं होती;
बीमार और बीमारी नहीं होती;
स्वशासन और सुशासन होता;
ईमानदार  और स्वच्छ प्रशासन होता;
जनता और नेताओं में अनुशासन होता;
देश - कोस में खुशहाली होती;
चारों तरफ सुख - समृधि होता;
न काला धन, ना चोरबाजारी होती;
प्रगति में सबकी हिस्सेदारी होती l 
सोचता हूँ काश ! ऐसा होता...
काश ! ऐसा होता...काश ! ऐसा होता...

कुमार ठाकुर 
२ जून २०१२ 
© कुमार ठाकुर । बिना लिखित अनुमति इन कविताओं का कहीं भी किसी भी प्रारूप में प्रयोग करना वर्जित है