आज मनुष्य असंवेदनशील होकर अपनी मानवीय गुणों को खोता जा रहा है. उसी सन्दर्भ में अपनी कुछ पंक्तियाँ प्रस्तुत कर रहा हूँ. आशा है, प्रबुद्ध वर्ग इसे पसंद करेंगे. इस कविता के बारे में आपके शब्दों का इन्तजार रहेगा.
तुम मेरी संवेदना हो,
तुम मेरी सहजता हो,
तुम मेरी स्थिरता हो,
तुम मेरी कोमलता हो,
तुम मेरी सरलता हो,
तुम मेरी सौम्यता हो,
तुम मेरी विनम्रता हो,
तुम मेरी उदारता हो,
तुम मेरी मानवता हो,
तुम मेरी शांति के पल हो,
तुम मेरी प्रेम के कोपल हो,
तुम मेरी काव्य रस धारा हो,
तुम मेरे जीवन का सहारा हो,
आज तुमको बहुत ढूँढा,
आवाज दी, पुकार लगाई,
लेकिन तुम कहीं नहीं मिले,
कहाँ छुपे हो, मुंह मोड़ के बैठे हो,
क्या कारण है तुम रूठे हो...
कुमार ठाकुर
२८ मई २०१२.
© कुमार ठाकुर । बिना लिखित अनुमति इन कविताओं का कहीं भी किसी भी प्रारूप में प्रयोग करना वर्जित है।
क्या कारण है तुम रूठे हो...
तुम मेरी संवेदना हो,
तुम मेरी सहजता हो,
तुम मेरी स्थिरता हो,
तुम मेरी कोमलता हो,
तुम मेरी सरलता हो,
तुम मेरी सौम्यता हो,
तुम मेरी विनम्रता हो,
तुम मेरी उदारता हो,
तुम मेरी मानवता हो,
तुम मेरी शांति के पल हो,
तुम मेरी प्रेम के कोपल हो,
तुम मेरी काव्य रस धारा हो,
तुम मेरे जीवन का सहारा हो,
आज तुमको बहुत ढूँढा,
आवाज दी, पुकार लगाई,
लेकिन तुम कहीं नहीं मिले,
कहाँ छुपे हो, मुंह मोड़ के बैठे हो,
क्या कारण है तुम रूठे हो...
कुमार ठाकुर
२८ मई २०१२.
© कुमार ठाकुर । बिना लिखित अनुमति इन कविताओं का कहीं भी किसी भी प्रारूप में प्रयोग करना वर्जित है।